1. Nar aur Narayan ki anokhi katha 2. आखिर कौन थे नर और नारायण जिन्होंने सूर्य देव को श्राप दिया, पढ़े पूरी कथा

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Nar aur Narayan ki anokhi katha

Nar aur Narayan ki anokhi katha

Nar aur Narayan ki anokhi katha 2024 : दम्बोद्भव नामक एक असुर था। उसने सूर्यदेव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। सूर्य देव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने अमरत्व का वरदान माँगा।

सूर्यदेव ने उसे अमरत्व का वरदान नहीं दिया और कहा यह संभव नहीं है। तब उसने दूसरा वरदान माँगा कि उसे एक हजार दिव्य कवचों की सुरक्षा मिलें। इन कवचों में से एक भी कवच सिर्फ वही तोड़ सकता है, जिसने एक हजार वर्ष तपस्या की हो। जैसे ही कोई एक भी कवच को तोड़े, वह तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो अर्थात् उसकी तुरंत मृत्यु हो जाये।

सूर्य देवता इस बात से बड़े चिंतित हुए। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें लेकिन वह इतना समझ चुके थे कि यह असुर इस वरदान का दुरुपयोग करेगा। किंतु वे असुर की तपस्या के आगे मजबूर थे और उन्हें उसे यह वरदान देना ही पड़ा।

वरदान मिलने के बाद वही हुआ जिसका सूर्यदेव को डर था। दम्बोद्भव अपने सहस्र कवचों की शक्ति से स्वयं को अमर मान मनचाहे अत्याचार करने लगा। हजार कवचों के वरदान के कारण ही वह “सहस्र कवच” नाम से जाना जाने लगा।

उधर दक्ष प्रजापति (सती के पिता) ने अपनी पुत्री ‘मूर्ति’ का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ‘धर्म’ से किया। ‘मूर्ति’ ने ‘सहस्रकवच’ के अत्याचार के बारे में सुना था। उन्होंने श्रीहरि विष्णु से प्रार्थना की कि उसे खत्म करने के लिए वे आयें। भगवान विष्णु ने मूर्ति की प्रार्थना सुन उसे आश्वासन दिया कि वे ऐसा करेंगे।

कुछ समय बाद मूर्ति ने दो जुड़वां पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम हुए नर और नारायण।

दोनों दो शरीर में होते हुए भी एक थे। मतलब दो शरीर में एक आत्मा। श्रीहरि विष्णु (lord vishnu) ने एक साथ दो शरीर में नर और नारायण (Nar aur Narayan) के रूप में अवतार लिया था। दोनों भाई बड़े हुए।

Nar aur Narayan ki anokhi katha
Nar aur Narayan ki anokhi katha | नर और नारायण की अनोखी कथा

एक बार दम्बोद्भव एक तेजस्वी मनुष्य को अपनी ओर आते देखा और भय का अनुभव किया। दम्बोद्भव के पूछने पर उस व्यक्ति ने कहा कि मैं “नर” हूँ, और तुम से युद्ध करने आया हूँ। भय का अनुभव होने के बाद भी उसने हँस कर कहा, तुम मेरे बारे में जानते ही क्या हो? मेरा कवच सिर्फ वही तोड़ सकता है जिसने हज़ार वर्षों तक तप की हो।

नर ने हँस कर जवाब दिया कि मैं और मेरा भाई नारायण एक ही हैं। वह मेरे बदले तपस्या कर रहे हैं और मैं उनके बदले युद्ध कर रहा हूँ।

दोनों के बीच युद्ध शुरू हुआ और सहस्र कवच को आश्चर्य होता है कि सच ही में नारायण के तप से नर की शक्ति बढ़ती चली जा रही थी।

जैसे ही नारायण ने हज़ार वर्ष का समय पूरा किया वैसे ही नर ने सहस्र कवच का एक कवच तोड़ दिया। लेकिन सूर्यदेव के वरदान के अनुसार जैसे ही एक कवच टूटा नर मृत हो कर गिर पड़े ।

नर की मृत्यु पर सहस्र कवच ने सोचा कि चलो एक कवच गया ही सही किन्तु यह तो मर गया। तभी उसने देखा की नर उसकी दौड़ते हुए आ रहा है। सहस्र कवच चकित हो जाता है।

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अभी थोड़ी देर पहले ही उसके सामने नर की मृत्यु हुई थी और अभी वह जीवित हो मेरी और कैसे दौड़ा आ रहा है? लेकिन फिर उसने देखा कि नर का पार्थिव शरीर जमीन पर पड़ा है। यह तो हुबहु नर जैसे प्रतीत होते उनके भाई नारायण थे।

नारायण दम्बोद्भव (सहस्र कवच) की तरफ नहीं, बल्कि अपने भाई नर की तरफ दौड़ रहे थे।

दम्बोद्भव ने हँसते हुए नारायण से कहा कि तुम्हे अपने प्रिय भाई को समझाना चाहिए था। इसने व्यर्थ में ही अपने प्राण गँवा दिए। नारायण दम्बोद्भव की बातों मुस्कुराए और अपने भाई के पार्थिव शरीर के पास बैठ कर कोई मंत्र पढ़ा और मंत्रोच्चार के बाद नर चमत्कारिक रूप से उठ बैठे।

नर के पुनः जीवित होने पर दम्बोद्भव की समझ में आया कि हज़ार वर्ष तक नारायण ने भगवान शिव की तपस्या की, जिससे उन्हें मृत्युंजय मंत्र की सिद्धि का वरदान मिला। जिससे वे अपने भाई को पुनः जीवित कर कर दिया।

अब दम्बोद्भव ने नारायण को ललकारा और नर तपस्या में बैठे। हज़ार साल के युद्ध और तपस्या के बाद फिर एक कवच टूटा और नारायण की मृत्यु हो गयी। फिर नर ने आकर नारायण को मृत्युंजय मंत्र से पुनर्जीवित कर दिया और इस तरह यह चक्र फिर फिर चलता रहा।

इस प्रकार नर नारायण ने दम्बोद्भव से कुल 999 बार युद्ध किया। एक भाई युद्ध करता दूसरा तपस्या करता, एक भाई की मृत्यु होने पर दूसरा भाई उसे पुनर्जीवित कर देता।

999 कवच टूटने के बाद सहस्र्कवच को समझ गया कि अब उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए अपने प्रणों की रक्षा के लिए वह सूर्यलोक भाग कर सूर्यदेव के शरणागत हुआ।

नर और नारायण भी सहस्र्कवच का पीछा करते हुए सूर्यलोक पहुँचे और सूर्यदेव से उसे सौंपने को कहा। किंतु सूर्यदेव ने अपने भक्त को नहीं सौंपा।

इस बार नारायण ने क्रोधित होते हुएअपने कमंडल से जल लेकर सूर्यदेव को श्राप दिया कि आप इस असुर को उसके कर्मफल से बचाने का प्रयास कर रहे हैं। इस वजह से आप भी इसके पापों के भागीदार हुए और आप भी इसके साथ जन्म लेंगे इसका कर्मफल भोगने के लिए।

इसके साथ ही त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर युग का उदय हुआ।

द्वापर युग में कुंती ने अपने वरदान को परखने के लिए सूर्यदेव का आवाहन किया और कर्ण का जन्म हुआ। कर्ण सिर्फ सूर्यपुत्र ही नहीं है बल्कि उसके भीतर सूर्य और दम्बोद्भव दोनों हैं। जिस तरह नर और नारायण दो शरीर में एक आत्मा थे, ठीक उसी तरह कर्ण के एक शरीर में दो आत्माओं का वास है सूर्य और सहस्रकवच।

इस बार नर और नारायण ने अर्जुन और कृष्ण के रूप में आये।

कर्ण के भीतर जो सूर्य का अंश है। वही उसे तेजस्वी वीर बनाता है जबकि दम्बोद्भव उसे अपकर्म करने के लिए प्रेरित करता है, जिस कारण कर्ण को अन्याय और अपमान मिलता है।

यदि युद्ध के समय अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ता तो तुरंत ही उसकी मृत्यु हो जाती। इसीलिये इंद्र कर्ण से उसका कवच पहले ही मांग ले गए थे।

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